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चाय की प्याली और मैं poem on election 2019

चाय की प्याली और मैं poem on election 2019                                      चाय की प्याली और मैं  poem on election 2019 गर्मी हो या रात काली चाय और मेरे चाय की प्याली। दो घूंट चाय और उसमे स्वाद का तड़का काम आये हर मौसम चाहे  ठंड पड़ा हो तगड़ा। चाय भी मौसम के हिसाब से रंग बदल जाती है ठंड के मौसम मैं कड़क चाय तो गर्मी मे लेमन टी बन जाती है। और चुनावी मौसम आते ही चाय और गरम हो  जाती है चच्चा चौदरी कि चाय भी मोदी चाय बन जाती है। नाई की  दुकान  से लेकर  पान की दुकान तक पान की दुकान से लेकर गली गली हर नुक्कड़ तक  चाय भी सियासत कर जाती है।। एक बार चाचा चौदरी ने मुझसे पूछा जनाब कौनसी चाय पियोगे? मैं संकट मे पड़ गया मोदी चाय  नयी नयी बजार मे थी मै मोदी चाय पी गया। चाचा भी गजब आदमी चाय मैं मलाई मारकर दो करोड़ रोजगार, विमुद्रिकरण कला धन  भरष्टाचार सब मिला गए और चाय इतनी गर्म हो गयी साहेब की हमार तो मुह ही जल गवा। बस ऐसी है मेरी चाय निराली मैं और मेरे चाय की प्याली।। poem on election 2019 this post is written only for entertainmen

Nai soch( नई सोच)

hindi poem  नई सोच जब ढक लिया अंधकार ने नभ को समा गए   थे    मेघ    नभ  में आभास हुआ था अमावस्या का लगा था न होगा अंत तम का                ऐसे में उत्पन्न हुआ था         उत्साह का एक नया सवेरा         नई किरण नए जोश से हम       निर्माण करने चलें स्वर्णिम भारत का प्रकृति इतनी धन्य हुई हम पर मस्तक पर हिमालय सजाया सागर से चरण धुलवाए और हृदय से गंगा बहाई                   शहीदों की चिताओं से इसकी नींव बनाई थी    बापू के अरमानों पर खड़ा किया था भारत      परंतु    इस ।   व्यर्थ । ।  स्वार्थ।   से     ढ़हने.  लगा है आज यह भारत । शहीदों की अस्थियां इतनी कमजोर तो नहीं थी बापू के अरमान इतने कमजोर तो नहीं थे ? तो क्या कारण हो सकता है इसका ? कहीं निर्माण में मिलावट तो शामिल  नहीं? न ही भारत की नींव कमजोर थी और ना ही इसके स्तंभ शायद भारत निर्माण के अभियंता ही हैं  उद्दंड               आओ मिलकर दंडित करें               ऐसे उद्दंड अभियंता को               जिन्होंने नींव को खोखला किया               मिलकर करें उनका अंत  आज हम मिलकर संकल्प लें  मजबूत भारत हम बनाएंगे

poem on dowry system(दहेज प्रथा)

देखकर उसकी व्याकुलता मेरे उर का हुआ उदय  देख कर उसकी अश्रुधारा  गा रहा है मेरा हृदय                                काली घटा छाई उस पर                    जाने ना किन पापों की                    बनी वह कलह का कलश                    अपने प्यारे कुटुंब की   देहली पर इस घर की आई  लक्ष्मी बनकर वह नई   नष्ट किया इस कलश ने सब भरे थे जिनमे सपने कहीं                  मां कह कर पुकारती जिसे                बनी है शत्रु आज उसकी                             नित्य प्रताड़ित करती है उसे                         मायाजाल में आज फसी देखकर  उसकी की व्याकुलता  बाप बेचारा है परेशान  जानी न व्यथा उसकी  इन सबसे था अनजान                         अपनी पुत्री के रोदन से                डर से सहमा उसका मन                 चिंतित है क्षण क्षण वह                कहां से प्राप्त हो इतना धन ससुर को भी कुछ न सुझा लगा मानवता को लजाने में  फिर दहक रही अग्नि  रसोई घर के कोने में                                  संकीर्ण मानसिकताएं हमारी