देखकर उसकी व्याकुलता
मेरे उर का हुआ उदय
देख कर उसकी अश्रुधारा
गा रहा है मेरा हृदय
काली घटा छाई उस पर
जाने ना किन पापों की
बनी वह कलह का कलश
अपने प्यारे कुटुंब की
देहली पर इस घर की आई
लक्ष्मी बनकर वह नई
नष्ट किया इस कलश ने सब
भरे थे जिनमे सपने कहीं
मां कह कर पुकारती जिसे
बनी है शत्रु आज उसकी
नित्य प्रताड़ित करती है उसे
मायाजाल में आज फसी
बनी है शत्रु आज उसकी
नित्य प्रताड़ित करती है उसे
मायाजाल में आज फसी
देखकर उसकी की व्याकुलता
बाप बेचारा है परेशान
जानी न व्यथा उसकी
इन सबसे था अनजान
अपनी पुत्री के रोदन से
डर से सहमा उसका मन
चिंतित है क्षण क्षण वह
कहां से प्राप्त हो इतना धन
ससुर को भी कुछ न सुझा
लगा मानवता को लजाने में
फिर दहक रही अग्नि
रसोई घर के कोने में
संकीर्ण मानसिकताएं हमारी
बार-बार करें अपपमान
बार-बार करें अपपमान
पुत्रवधु समझ ना सही
पुत्री समझ तो करें सम्मान
a short poem against the dowry system
writing by Mahavir singh( silent writer)
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